‘शिक्षित महिला गुमराह नहीं हो सकती’ : हाईकोर्ट की अहम टिप्पणी

इलाहाबाद। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक अहम टिप्पणी करते हुए कहा है कि कोई भी शिक्षित और वयस्क महिला यह दावा नहीं कर सकती कि उसे किसी शादीशुदा पुरुष ने गुमराह कर संबंध बनाए। अदालत ने स्पष्ट किया कि यदि महिला अपनी मर्जी से किसी विवाहित पुरुष से संबंध रखती है, तो वह अपने इस निर्णय के लिए स्वयं जिम्मेदार होगी और ऐसे मामलों में पुरुष पर जबरन आरोप नहीं लगाया जा सकता।
यह फैसला न्यायमूर्ति राहुल चतुर्वेदी की पीठ ने एक आपराधिक मामले में आरोपी की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए सुनाया। आरोपी पर एक महिला को शादी का झांसा देकर यौन संबंध बनाने का आरोप था।
कोर्ट ने कहा कि “35 वर्षीय शिक्षित महिला, जो परिपक्व भी है, यह नहीं कह सकती कि उसे गुमराह किया गया। वह इतनी समझदार है कि अपने सही और गलत का फैसला स्वयं कर सके। जब वह विवाहित पुरुष के साथ स्वेच्छा से संबंध बनाती है, तो बाद में धोखे का आरोप लगाने का कोई औचित्य नहीं बनता।”
अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि अक्सर इस तरह के मामलों में महिलाएं खुद को पीड़ित के रूप में पेश करती हैं, जबकि उन्हें स्पष्ट रूप से यह जानकारी होती है कि सामने वाला व्यक्ति पहले से विवाहिता है।
अंततः, अदालत ने आरोपी को जमानत प्रदान करते हुए कहा कि केवल विवाह का झूठा वादा कर यौन संबंध बनाने का आरोप पर्याप्त नहीं है। यह देखना आवश्यक है कि क्या विवाह का वादा केवल संबंध बनाने के उद्देश्य से किया गया था या वास्तव में विवाह का इरादा भी था।
न्यायालय का यह फैसला समाज में महिला-पुरुष संबंधों और कानूनी दृष्टिकोण को लेकर नई बहस छेड़ सकता है।

संपादकीय

“शिक्षित महिला और जिम्मेदारी का प्रश्न”
इलाहाबाद हाईकोर्ट का हालिया उपरोक्त फैसला समाज और कानून दोनों के लिए गहरी सोच का विषय है। अदालत ने स्पष्ट कहा है कि यदि कोई शिक्षित और परिपक्व महिला अपनी इच्छा से किसी विवाहित पुरुष से संबंध बनाती है, तो वह इस फैसले के परिणामों के लिए स्वयं जिम्मेदार होगी। इसे केवल ‘झांसा’ या ‘धोखे’ की श्रेणी में डालकर पुरुष को दोषी ठहराना न्यायसंगत नहीं माना जा सकता।यह फैसला समाज में प्रचलित एक गंभीर प्रवृत्ति पर भी रोशनी डालता है। कई बार ऐसे मामले सामने आते हैं, जहां परिपक्व और पढ़ी-लिखी महिलाएं भी खुद को पीड़िता साबित करने का प्रयास करती हैं। अदालत का मानना है कि इस स्तर पर एक महिला में इतना विवेक और समझ होती है कि वह अपने सही और गलत का निर्णय कर सके। ऐसे में केवल आरोपों के आधार पर पुरुष को दोषी ठहराना न्याय की दृष्टि से उचित नहीं है।हालांकि, इस फैसले का दूसरा पहलू भी है। यह भी ध्यान रखना होगा कि समाज में कई महिलाएं वास्तव में शोषण और छल का शिकार होती हैं। शादी का झूठा वादा कर संबंध बनाना न केवल नैतिक रूप से गलत है, बल्कि यह महिला की गरिमा और अधिकारों का उल्लंघन भी है। अदालत ने इस पहलू को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया और कहा कि यह जांच जरूरी है कि क्या विवाह का वादा केवल संबंध बनाने के लिए किया गया था या वास्तव में विवाह की मंशा थी।
इस निर्णय से यह संदेश भी निकलता है कि कानून का इस्तेमाल केवल भावनाओं या व्यक्तिगत शिकायतों की तुष्टि के लिए नहीं होना चाहिए। हर व्यक्ति—चाहे वह महिला हो या पुरुष—को अपने निर्णयों की जिम्मेदारी स्वयं उठानी होगी।
यह फैसला समाज को यह सोचने पर मजबूर करता है कि रिश्तों में पारदर्शिता, ईमानदारी और जिम्मेदारी कितनी आवश्यक है। अदालत की यह टिप्पणी न केवल कानूनी बहस को नया आयाम देती है, बल्कि सामाजिक चेतना को भी झकझोरती है।
कानून रिश्तों की जटिलताओं को पूरी तरह नहीं सुलझा सकता। अदालत का काम न्याय करना है, लेकिन सामाजिक स्तर पर हमें पारदर्शिता और ईमानदारी की संस्कृति विकसित करनी होगी।दरअसल, रिश्तों में “जिम्मेदारी” ही सबसे बड़ी कसौटी है। अदालत ने इस बार यह जिम्मेदारी महिलाओं के पाले में डाल दी है, लेकिन समाज को याद रखना होगा कि जिम्मेदारी दोनों की साझा है—पुरुष की भी और महिला की भी।

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