बद्रीनाथ के ब्रह्म कपाल तीर्थ में पिंडदान और तर्पण का महत्व

बद्रीनाथ (चमोली)। उत्तराखंड स्थित भगवान बद्रीनाथ धाम केवल विष्णुभक्तों का ही केंद्र नहीं है, बल्कि यह पितरों की आत्मा की मुक्ति और शांति का भी पावन स्थल है। धाम के समीप अलकनंदा तट पर स्थित ब्रह्म कपाल तीर्थ पिंडदान और तर्पण के लिए प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि यहां किए गए श्राद्ध से अनंत जन्मों के पितरों को भी मोक्ष की प्राप्ति होती है।
ब्रह्म कपाली में किया जाने वाला पिंडदान आखिरी माना जाता है। इसके बाद उक्त पूर्वज के निमित्त‍ किसी भी तरह का पिंडदान या श्राद्ध कर्म नहीं किया जाता है।

पौराणिक मान्यता

स्कंदपुराण और अन्य धर्मग्रंथों के अनुसार, सृष्टि के रचयिता भगवान ब्रह्मा का कपाल यहीं आकर गिरा था। तभी से यह स्थल “ब्रह्म कपाल” कहलाता है। मान्यता है कि जो श्रद्धालु यहां पिंडदान और तर्पण करता है, उसके पितर पुनर्जन्म के बंधन से मुक्त होकर परम लोक को प्राप्त करते हैं।

पांडवों की कथा

लोकश्रुति है कि महाभारत युद्ध के पश्चात पांडवों ने अपने परिजनों की आत्मा की शांति के लिए ब्रह्म कपाल पर ही पिंडदान किया था। यह भी विश्वास है कि पांडवों ने हिमालय की ओर प्रस्थान करने से पूर्व यहीं पर अपने कुल के दिवंगत आत्माओं का तर्पण कर आशीर्वाद प्राप्त किया था।

पिंडदान की परंपरा

यहां आने वाले श्रद्धालु आटे और चावल के पिंड बनाकर पितरों को अर्पित करते हैं। इसमें तिल, जौ और घी का विशेष प्रयोग किया जाता है। माना जाता है कि इससे पितर तृप्त होकर वंशजों को सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं।

तर्पण

ब्रम्ह कपाल में श्रद्धालु कुशा और तिल से जल अर्पित करते हैं। तर्पण का अर्थ ही है “तृप्त करना।” विश्वास है कि ब्रह्म कपाल में तर्पण करने से पितरों की आत्मा संतुष्ट होती है और जीवन में शांति, समृद्धि और बाधाओं से मुक्ति मिलती है।

बद्रीनाथ धाम आने वाले तीर्थयात्री सबसे पहले ब्रह्म कपाल पर पिंडदान और तर्पण करते हैं। परंपरा है कि इसके बाद ही भगवान बद्रीनाथ के दर्शन का पूर्ण फल प्राप्त होता है।

धार्मिक और सामाजिक दृष्टि

धार्मिक रूप से, यह अनुष्ठान पितरों की आत्मा की मुक्ति का साधन है।

सामाजिक दृष्टि से, यह परंपरा हमें वंश परंपरा और पूर्वजों के प्रति सम्मान और कृतज्ञता का संदेश देती है।

ब्रह्म कपाल तीर्थ, बद्रीनाथ धाम यात्रा का अभिन्न हिस्सा है। यहां किया गया पिंडदान और तर्पण केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि पूर्वजों के प्रति श्रद्धा, कृतज्ञता और परिवार की निरंतरता का प्रतीक है। पौराणिक कथाओं और मान्यताओं के साथ यह स्थल हर साल लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है।

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