प्रताड़ना और अदालत के चक्कर से त्रस्त महिला का अनोखा विरोध

Edited by Ramanuj Tiwari

मध्य प्रदेश के मुरैना जिला न्यायालय परिसर में सोमवार को उस समय सनसनी फैल गई जब एक महिला अवैध हथियार लेकर पहुंच गई। महिला ने जब हाथ ऊपर कर हवा में हथियार लहराया तो वहां वकीलों और आम लोगों के बीच अफरा-तफरी मच गई। पुलिस ने सतर्कता दिखाते हुए महिला को पकड़ कर हथियार जब्त कर लिया।
पुलिस से मिली जानकारी के अनुसार महिला का नाम रेखा राठौर है। वह अपने पति के साथ किसी केस की तारीख पर जिला न्यायालय आई थी। पूछताछ में महिला ने चौंकाने वाला बयान दिया। उसने कहा मैं अपने पति से प्रताड़ित हूं और जानबूझकर अवैध हथियार लेकर आई थी, क्योंकि मुझे जेल जाना है।
महिला के इस बयान ने पुलिस और कोर्ट परिसर में मौजूद लोगों को हैरान कर दिया। पुलिस ने जब महिला से बातचीत की तो उसने कहा कि मेरा पति मुझे प्रताड़ित कर रहा है। इसको लेकर लगातार में कोर्ट में तारीख पर आ रही है, लेकिन मुझे न्याय नहीं मिल पा रहा है। मैं कोर्ट के चक्कर लगाते लगाते परेशान हो गई हूं, इसलिए जेल जाना चाहती हूं।फिलहाल पुलिस ने महिला को छोड़ दिया है। पुलिस ने मंगलवार को जनसुनवाई के दौरान महिला और पति दोनों को बुलाया है।

संपादकीय

  “जब न्याय की राह थकाने लगे…”

मुरैना जिला न्यायालय में सोमवार को घटी उपरोक्त घटना ने पूरे तंत्र पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं। एक महिला, जिसने जीवनभर सुरक्षा और न्याय की उम्मीद की होगी, आखिर क्यों हथियार उठाकर स्वयं जेल जाने की ठान बैठी? यह घटना महज़ एक सनसनीखेज खबर नहीं है, बल्कि हमारी न्याय व्यवस्था और सामाजिक ढांचे के लिए गहरी चेतावनी है।
रेखा राठौर का यह कहना कि “मैं पति की प्रताड़ना और अदालत के चक्कर से परेशान हूँ, इसलिए जेल जाना चाहती हूँ” – हमारी न्यायिक प्रक्रिया की जमीनी हकीकत को उजागर करता है। अदालतों में लगातार तारीखें, पीड़ित को राहत के बजाय थकान और मानसिक यातना देती हैं। वर्षों तक फैसले का इंतजार, इंसाफ से अधिक सज़ा जैसा प्रतीत होता है।
यह सवाल अहम है कि यदि कोई महिला अपने अधिकारों और सुरक्षा की आस में कोर्ट जाती है और अंततः निराश होकर हथियार उठाने पर मजबूर हो जाती है, तो इसका दोष किस पर है? पति पर? समाज पर? या फिर उस व्यवस्था पर, जो पीड़िता को राहत देने में नाकाम रही?
इस घटना को केवल कानून-व्यवस्था के उल्लंघन के नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए। यह एक सामाजिक दस्तक है। यह बताती है कि महिलाओं की सुरक्षा, घरेलू हिंसा के मामलों में त्वरित न्याय और पीड़ित पक्ष की मानसिक स्थिति को गंभीरता से लेना आवश्यक है।
रेखा राठौर की तरह न जाने कितनी महिलाएँ आज भी अदालतों के लंबे चक्कर काटते हुए थक चुकी हैं। न्याय यदि समय पर न मिले, तो उसका महत्व और प्रभाव दोनों ही कम हो जाते हैं।
अब समय है कि हमारी न्याय व्यवस्था और प्रशासन ऐसी घटनाओं से सबक ले। अदालतों में लंबित मामलों को कम करने, घरेलू हिंसा पीड़ित महिलाओं को त्वरित राहत देने और संवेदनशील परामर्श प्रणाली को मजबूत करने की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएँ। वरना आने वाले समय में समाज ऐसे और भी विचलित कदमों का गवाह बनेगा।

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