भगवान श्रीकृष्ण जनमाष्टमी पर्व विशेष
जीवन में शांति के लिए - आलोचना और सराहना पर ध्यान न दें

श्रीकृष्ण की सीख: आलोचना और सराहना पर ध्यान न दें:जो व्यक्ति न प्रशंसा से प्रसन्न होता है, न निंदा से दुखी होता है, उसे जीवन में शांति मिलती है
आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाई जाएगी। भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करने के साथ ही उनके उपदेशों को जीवन में उतारने से हमारी सभी परेशानियां दूर हो सकती हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को फल की इच्छा किए बिना, कर्म करते रहने की सीख दी थी। ये सीख हमें भी अपने जीवन में उतारनी चाहिए। भगवान उन लोगों से प्रसन्न होते हैं जो व्यक्ति न प्रशंसा से प्रसन्न होते हैं, न निंदा से दुखी होते हैं, ऐसे लोगों को जीवन में शांति मिलती है।
हम अक्सर दूसरों की राय को अंतिम सत्य मान लेते हैं, लेकिन गीता कहती है कि हर व्यक्ति की सोच उनके अपने संस्कारों और मानसिक प्रवृत्तियों से बनी होती है। व्यक्ति की आलोचना या सराहना स्थायी सत्य नहीं होती, लोग सिर्फ उनकी अपनी मानसिक स्थिति के आधार पर प्रतिक्रिया देते हैं। जैसे-जैसे मानसिक स्थिति बदलती है, प्रतिक्रिया भी बदलती है। इसलिए किसी की आलोचना या सराहना पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए।
जब हम किसी को खुश करने के लिए खुद को बदलते हैं तो हम अपने आप को दूसरों की नजर से देख रहे होते हैं। हमें अपनी शांति उन लोगों को नहीं सौंपना चाहिए, जिन्होंने अभी तक अपनी खुद की शांति नहीं पाई है।
मोह और क्रोध बुद्धि का नाश करते हैं
मनोविज्ञान कहता है कि हमारा मस्तिष्क सामाजिक पुरस्कार जैसे प्रशंसा, स्वीकृति का भूखा है, धीरे-धीरे सामाजिक पुरस्कार पाने की इच्छा हमारी आदत बन जाती है। गीता इसे तृष्णा कहती है, यानी एक ऐसी प्यास, जो कभी बुझती नहीं है।
शुरुआत में दूसरों को खुश करना अच्छा लगता है, तारीफ, सराहना, लाइक, ये सब हमें प्रसन्नता देते हैं, लेकिन धीरे-धीरे ये बातें हमें अपर्याप्त लगने लगती हैं, तब हमारी इच्छा और प्रशंसा पाने की रहती है। ये आदत हमें दूसरों की स्वीकृति के बिना खुद को अधूरा महसूस करवाती है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि- इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से मोह, मोह से स्मृति का नाश और स्मृति नष्ट होने से बुद्धि का नाश होता है। (गीता- अध्याय- 2, श्लोक – 62–63)
जब किसी व्यक्ति की बुद्धि का नाश होता है तो उसका जीवन नष्ट हो जाता है।
अपने धर्म के अनुसार काम करें
कर्म करना हमारा कर्तव्य है, निष्क्रियता से बचें। (गीता- अध्याय 3, श्लोक 8)
अर्जुन श्रीकृष्ण से युद्ध से पीछे हटने की बात कहते हैं, क्योंकि वे अपने संबंधियों, गुरुओं को मारने से डरते हैं यानी कि दूसरों को दुखी करने के डर से वे युद्ध से पहले ही अपने धनुष-बाण नीचे रख देते हैं। उस समय श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि अपने धर्म को याद करो। भले वह कठिन है, भले ही लोग उसे न समझें, लेकिन तुम्हें अपने धर्म के अनुसार कर्म करना चाहिए।
सभी को खुश करने की कोशिश से अशांति मिलती है
श्रीकृष्ण कहते हैं- जो व्यक्ति न प्रशंसा से प्रसन्न होता है, न निंदा से व्यथित, वह मुझे प्रिय है। (गीता – अध्याय- 12, श्लोक – 19)
जब हम निरंतर ये सोचते हैं कि लोग क्या सोचेंगे, क्या कहेंगे, तब हम एक मानसिक जाल में फंस जाते हैं, हर समय सतर्क रहना, बातों को बार-बार सोचना, आत्म-संदेह में जीना। लोगों को खुश करने की कोशिश से मानसिक थकावट, चिंता, अशांति और निर्णय लेने की अक्षमता पैदा होती है।
जब हम भीतर से संतुलित होते हैं तो निर्णय लेना आसान हो जाता है। हम वही कहते हैं जो आवश्यक है, वही करते हैं जो उचित है, और अंत में, शांति से सोते हैं।
शांति चाहते हैं तो सत्य के मार्ग पर चलें
हम स्वतंत्र और लोकप्रिय एक नहीं हो सकते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि सत्य का मार्ग अक्सर अकेलापन देता है, लेकिन वही शांति का मार्ग है।
हर युग में कई ऐसे महान लोग हुए हैं, जिन्होंने सत्य का अनुसरण किया है, उन्हें दुनिया ने पहले गलत समझा था, लेकिन बाद में लोग उनका अनुसरण करने लगे।
हर किसी को खुश करने की आदत शायद हमें लोकप्रिय बना दे, लेकिन हमें पूर्ण नहीं बना सकती, शांति नहीं दे सकती।
गीता कहती है कि मोक्ष (मुक्ति) किसी की स्वीकृति से नहीं मिलता, बल्कि अपनी सच्चाई से मिलता है। जब हम किसी को निराश न करने की कोशिश में खुद से समझौता करें तो एक पल रुकें और पूछें कि क्या मैं किसी और की शांति बचाने के लिए खुद को धोखा दे रहा हूं? हमें स्वार्थी नहीं, बल्कि पवित्र बनना चाहिए, सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए।