पितृपक्ष: पूर्वजों की स्मृति, कृतज्ञता और श्रद्धा का पर्व

जबलपुर (विशेष संवाददाता)।पितृपक्ष का हिन्दू धर्म में विशेष महत्व है। इसे श्राद्ध पक्ष भी कहा जाता है।भाद्रपद पूर्णिमा से अश्विन अमावस्या तक चलने वाले सोलह दिन पितृपक्ष कहलाते हैं।यह 16 दिनों का वह कालखंड होता है जब हम अपने पितरों, पूर्वजों और दिवंगत आत्माओं का स्मरण कर उन्हें तर्पण, पिंडदान और भोजन अर्पित करते हैं। मान्यता है कि इस समय पितृ लोक के द्वार खुल जाते हैं और पूर्वज अपनी संतान को आशीर्वाद देने पृथ्वी लोक पर आते हैं।यह काल हिंदू परंपरा में पूर्वजों की आत्मा की शांति और उनके आशीर्वाद की प्राप्ति के लिए समर्पित है। इस दौरान श्राद्ध, तर्पण और दान-पुण्य कर पितरों को तृप्त किया जाता है।

🔹 धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व

शास्त्र कहते हैं कि पितरों की कृपा से वंश में समृद्धि, संतान-सुख और उन्नति होती है। वहीं आधुनिक दृष्टि से यह पर्व हमें परिवार की जड़ों से जोड़े रखता है, कृतज्ञता का भाव सिखाता है और दान-पुण्य के माध्यम से समाज में समानता व सहयोग की भावना जगाता है। सात्विक आहार और संयमित जीवनशैली स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी सिद्ध होती है।

🔹 पितृपक्ष की प्रमुख लोककथाएं

गया में भगवान राम-सीता द्वारा किया गया श्राद्ध

शास्त्रों के अनुसार गया वह पवित्र भूमि है जहाँ स्वयं भगवान श्रीराम और माता सीता ने अपने पितरों के मोक्ष के लिए श्राद्ध और पिंडदान किया था। यही कारण है कि आज भी गया में पिंडदान और श्राद्धकर्म करने की परंपरा युगों से चली आ रही है और इसका धार्मिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक महत्व अत्यंत व्यापक है।

भगवान श्रीराम के द्वारा किए गए श्राद्ध का प्रसंग

वाल्मीकि रामायण तथा अन्य ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि जब रावण वध के पश्चात श्रीराम अयोध्या लौटे तो उन्होंने पितरों का तर्पण और श्राद्ध करने का संकल्प लिया। भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण और माता सीता के साथ गया नगरी पहुँचे। गया में फल्गु नदी के तट पर उन्होंने अपने पिता राजा दशरथ सहित पितरों के लिए पिंडदान किया। यह अवसर पितृपक्ष का ही था, जिसे आज भी ‘श्राद्ध पक्ष’ या ‘कनागत’ कहा जाता है।
कहा जाता है कि माता सीता ने भी स्वयं अपने हाथों से पिंड अर्पित किया था। पिंडदान की इस अनूठी परंपरा में विशेष रूप से “फल्गु नदी, वट वृक्ष, गाय, तुलसी और सीता माता” को साक्षी माना गया। परंपरा के अनुसार उसी समय से गया में पिंडदान की महत्ता अनंत गुना बढ़ गई।

गया की विशेषता

गया को “मोक्षनगरी” भी कहा जाता है। यहाँ पर श्राद्ध करने से आत्मा को मुक्ति मिलती है और पितरों को शांति प्राप्त होती है। शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि गया में श्राद्धकर्म करने से पितरों का तर्पण पूर्ण होता है और वंशजों को पुण्य की प्राप्ति होती है। यही कारण है कि पितृपक्ष में हजारों-लाखों श्रद्धालु देश-विदेश से गया पहुँचते हैं और अपने पितरों का पिंडदान करते हैं।

धर्मशास्त्र बताते हैं कि गया में श्राद्ध करने का सीधा लाभ पितरों को मिलता है। भगवान राम द्वारा किए गए पिंडदान ने यह प्रमाणित किया कि स्वयं भगवान भी अपने पूर्वजों का ऋण चुकाने हेतु श्राद्ध करते हैं। यह परंपरा मनुष्य को अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता, सम्मान और स्मरण की प्रेरणा देती है।

गया की धरती आज भी उसी श्रद्धा और आस्था की साक्षी है, जहाँ कभी भगवान राम और माता सीता ने पितरों का तर्पण किया था। पितृपक्ष के दिनों में यहाँ उमड़ने वाली भीड़ इस बात का प्रमाण है कि यह परंपरा केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की आत्मा है।

पितृपक्ष और कर्ण की कथा

पितृपक्ष का महत्व महाभारत के महान योद्धा कर्ण की कथा से और भी गहरा हो जाता है।

महाभारत युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने के बाद जब कर्ण स्वर्ग लोक पहुँचे तो उन्हें भोजन के रूप में केवल सोना और आभूषण ही प्राप्त हुए। भूख से व्याकुल होकर कर्ण ने देवताओं से पूछा –

“मुझे यह स्वर्णभोजन क्यों दिया जा रहा है? मैं तो भूखा हूँ।”

तब देवताओं ने उत्तर दिया –

“हे कर्ण! आपने जीवन भर दान तो बहुत किया, लेकिन कभी अपने पितरों को अन्न और जल का दान नहीं दिया। इसलिए स्वर्ग में आपको यही फल मिल रहा है।”

कर्ण ने विनम्रतापूर्वक कहा –

“मैंने दान तो बहुत दिया, किंतु यह भूल हुई कि अपने पितरों के लिए श्राद्ध नहीं किया। यदि मुझे अवसर मिले तो मैं अपनी भूल सुधारना चाहूँगा।”

कर्ण की प्रार्थना से देवता प्रसन्न हुए। उन्हें पंद्रह दिन के लिए पृथ्वी पर लौटने की अनुमति दी गई, ताकि वे अपने पितरों का श्राद्ध कर सकें।
कर्ण जब पृथ्वी पर लौटे तो उन्होंने पूरे विधि-विधान से अपने पूर्वजों का तर्पण और श्राद्ध किया। तभी से यह परंपरा आरंभ हुई कि वर्ष में एक बार पितृपक्ष के दौरान अपने पितरों का श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान किया जाए।

कर्ण की कथा यह सिखाती है कि – दान, पुण्य, पराक्रम सब अधूरे हैं यदि हम अपने पूर्वजों को स्मरण नहीं करते।

🔹 पितृपक्ष में करने योग्य कार्य

✅ तर्पण, पिंडदान और श्राद्ध करना।
✅ ब्राह्मण व जरूरतमंदों को भोजन कराना।
✅ अन्न, वस्त्र एवं गौ-दान।
✅ धार्मिक ग्रंथों का पाठ और मंत्र-जप।
✅ सात्विक भोजन और संयमित जीवन।

🔹 पितृपक्ष में वर्जित कार्य

❌ विवाह, गृहप्रवेश, नामकरण जैसे शुभ कार्य।
❌ मांसाहार, मदिरापान और तामसिक भोजन।
❌ झूठ, क्रोध, हिंसा और अपशब्दों का प्रयोग।
❌ हर्षोल्लास और उत्सव का आयोजन।
❌ पितरों की उपेक्षा करना।

पितृपक्ष का महत्व केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक एवं कृतज्ञता और सम्मान की अभिव्यक्ति है।पितरों का आशीर्वाद जीवन में सुख, समृद्धि और शांति प्रदान करता है।पूर्वजों को श्रद्धा और स्मरण अर्पित करना उतना ही आवश्यक है जितना जीवित प्राणियों की सेवा। पितृपक्ष हमें यह याद दिलाता है कि हम जो कुछ भी हैं, अपने पितरों की देन हैं, और उन्हें सम्मान देना ही सच्चा धर्म है।
पितृपक्ष केवल कर्मकांड का पर्व नहीं, बल्कि श्रद्धा, कृतज्ञता और सांस्कृतिक जुड़ाव का संदेश देता है। इस अवधि में किए गए श्राद्ध, तर्पण और मंत्र-जप से न केवल पितर प्रसन्न होते हैं, बल्कि परिवार पर आशीर्वाद की वर्षा होती है और जीवन में संतुलन, शांति और समृद्धि आती है।पितृपक्ष में तर्पण और पिंडदान करने से आत्माओं को शांति मिलती है और घर-परिवार में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है।

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