नेपाल: प्रतिबंध की गलती और जनता का ग़ुस्सा

Edited by Ramanuj Tiwari
नेपाल की सड़कों पर उठे नारों और झड़पों की गूंज सिर्फ़ एक नीतिगत गलती की देन है। सरकार ने सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाकर यह दिखा दिया कि उसे जनता की आवाज़ से डर है। लेकिन सवाल यह है कि लोकतंत्र में क्या जनता को चुप कराया जा सकता है? जवाब साफ़ है—नहीं।
सोशल मीडिया बैन ने नागरिकों में आक्रोश और अविश्वास को जन्म दिया। फेसबुक, यूट्यूब और एक्स जैसे प्लेटफ़ॉर्म बंद करने का नतीजा यह हुआ कि लोग जानकारी से कटे, भ्रम फैला और ग़ुस्सा भड़क उठा। संसद की दीवारें फांदते लोग और आंसू गैस से भरा आसमान—यह दृश्य बताता है कि जब सत्ता संवाद बंद कर देती है तो सड़क ही जनता की संसद बन जाती है।
गृह मंत्री रमेश लेखक का इस्तीफ़ा स्वागतयोग्य है, मगर यह काफ़ी नहीं। असली जवाबदेही सरकार की है जिसने अपनी ही जनता पर ऐसा असंवेदनशील कदम उठाया। प्रधानमंत्री ओली का बैन हटाना मजबूरी का फ़ैसला था, दूरदर्शिता का नहीं।
नेपाल की घटना भारत और पूरे दक्षिण एशिया के लिए भी सबक है—जनता की आवाज़ दबाने की कोशिश हमेशा उलटी पड़ती है। लोकतंत्र का तक़ाज़ा यही है कि सरकार जनता से डरे नहीं, बल्कि जनता पर भरोसा करे।

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